२४ सितंबर१९५८

 

 ''हमारा सामान्य विचारशील मन सामान्य आध्यात्मिक सत्य, उसके निरपेक्ष स्वरूपके तर्क और उसकी सापेक्षताओंके तर्क, उनके आपसी संबंध और उनके एकके दूसरेमें जलद जानेके मामलेमें ही लगा रहता है और यह देखता है कि सत्ताके आध्यात्मिक सिद्धांतके मानसिक परिणाम क्या हैं... । (बौद्धिक रूपसे समझनेकी) यह आवश्यकता जिस साधनसे पूरी हो सकती है, हमारे मनकी प्रकृतिने हमें जो दिया है, वह है दर्शन, और इस क्षेत्रमें वह आध्यात्मिक दर्शन होना चाहिये । पूर्वमें ऐसे बहुतेरे शास्त्र प्रकट हुए हैं, प्रायः हमेशा जहां कहीं पर्याप्त आध्यात्मिक विकास हुआ है वहीं, उसे बुद्धिसंगत सिद्ध करने- के लिये एक दर्शन उठ खड़ा हुआ है । शुरूमें अंतर्भासिक दर्शन और अंतर्भासिक अभिव्यक्ति ही इसकी प्रक्यिा थी जैसी उपनिषदोंके अगाध विचार और गंभीर भाषामें है । लेकिन बादमें समालोचनात्मक पद्धति ओर दृढ तर्क-प्रणाली और तार्किक संगठनका विकास हुआ । पीछे आनेवाले दर्शन आंतरिक उपलब्धियोंके बौद्धिक प्रतिपादन' या तार्किक रूपमें उसको उचित सिद्ध करनेके लिये थे या उन्होंने अपने-आपको उपलब्धि और अनुभूतिके लिये मानसिक आधार और क्रमबद्ध पद्धति प्रदान की ।' पश्चिममें जहां चेतनाकी समन्वयात्मक प्रवृत्तिका स्थान विश्लेषण करने और अलग करनेकी वृत्तिने ले लिया वहां लगभग शुरूसे ही आध्यात्मिक प्रेरणा और बौद्धिक तर्क एक-दूसरेसे अलग हो गये । दर्शन-शास्त्र शुरूसे ही चीजोंकी शुद्ध बौद्धिक और युक्तिसंगत व्याख्याकी ओर मुड गया । फिर भी ''पाइथागोरियन,'' ''स्टोइक'' और ''एपीक्यूरियन'' जैसे दर्शन आये जो केवल विचारके लिये नहीं, बल्कि जीवन-संचालनके लिये भी क्रियात्मक थे । उन्होंने सत्ताकी आंतरिक पूर्णताके लिये एक अनुशासन और एक प्रयासका विकास किया जो बादके ईसाई या नवीन ''पेगन'' धर्मकी विचार- रचनाओंमें उस ऊंचे आध्यात्मिक स्तरतक जा पहुंचे जहां पूरब और पच्छिम एक साथ मिल गये । लेकिन इसके बाद सारी

 

 ' जैसे, भगवद्गीता । ' जैसे, पातंजल योग-दर्शन ।

 

३७२


चीजको बौद्धिक कप देनेका काम पूरा हो गया और आत्माका और उसकी सक्रियता तथा जीवन और उसकी ऊर्जाओंके साथ दर्शनका संबंध या तो कट गया या इतना कम हो गया जितना तात्विक विचार अमूर्त और गौण प्रभावके द्वारा जीवन और कर्मको प्रभावित कर सकता है । पश्चिममें धर्मने दर्शनको नहीं, पंथोंके धर्मशास्त्रको अपना सहारा बनाया । कभी-कभी व्यक्ति-विशेषकी प्रतिभाके बलपर आध्यात्मिक दर्शन प्रकट हुआ है, लेकिन पश्चिममें वह पूर्वकी तरह आध्यात्मिक अनुभव और साधनाके हर महत्त्वपूर्ण मार्गका आवश्यक साथी नहीं रहा है । यह सत्य है कि आध्यात्मिक विचारका दार्शनिक विकास पूरी तरह अनिवार्य नहीं है, क्योंकि आत्माके सत्योंतक अंतर्भास और ठोस आंतरिक संपर्कके द्वारा सीधा और पूरी तरह पहुंचा जा सकता है । यह कहना भी आवश्यक है कि आध्यात्मिक अनुभूतिपर बुद्धिका आलोचनात्मक नियंत्रण बाधक और अविश्वसनीय हो सकता है क्योंकि यह उच्चतर आलोकके क्षेत्रपर डाला गया निम्नतर प्रकाश है । सच्ची नियंत्रणवाक्ति आंतरिक विवेक, चैत्य संवेदी और कौशल, ऊपरसे पथ-प्रदर्शनके उत्कृष्ट हस्तक्षेप या नैसर्गिक और ज्योतिर्मय आंतरिक पथ-प्रदर्शनमें होती है । लेकिन यह विकास-धारा भी जरूरी है क्योंकि आत्मा और बौद्धिक तर्कके बीच एक पुल होना चाहिये । हमारे समग्र आंतरिक विकासके लिये आध्यात्मिक या कम-से-कम आध्यात्मीकृत बुद्धिकी जरूरत है । उसके बिना यदि दूसरा ज्यादा गहरा पथ-प्रदर्शन न मिले तो आंतरिक क्यिा अव्यवस्थित, असंयत, अस्त-व्यस्त और अनाध्यात्मिक तत्त्वोंसे मिश्रित या एकदेशीय या अपनी उदारतामें अपूर्ण हो सकती है । 'अज्ञान'को समग्र 'ज्ञान'में रूपांतरित करनेके लिये हमारे अंदर एक ऐसी आध्यात्मिक बुद्धिका विकास आवश्यक है जो उच्चतर प्रकाशको लेकर हमारी प्रकृतिके सभी भागोंमें प्रवाहित कर सके । यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती आवश्यकता है ।',

 

('लाइफ डिवाइन', पृ० ८७८-८०)

 

 इसमें काफी सामग्री है, इसपर कम-से-कम एक दर्जन प्रश्न पूछे जा सकते है! (एक बच्चेंसे) तो, बारहमेंसे पहला?

 

(मौन)

 

३७३


     मेरे पास एक प्रश्न आया हैं, परंतु शाब्दिक है, अतः बहुत रोचक नही है । यह प्रारंभका वाक्यांश है : ''सत्ताके आध्यात्मिक सिद्धांतके मानसिक परिणाम'' का क्या अर्थ है?

 

   यह प्रश्न शायद उस व्यक्तिने पूछा है जिसे ''सिद्धांत'' का अर्थ मालूम नहीं ।

 

   सिद्धांतका अर्थ है उस सत्यका प्रतिपादन जो तर्कद्वारा प्राप्त हुआ हीं । गणितमें और अन्य सभी बाहरी विज्ञानोंमें इस शब्दका प्रयोग काफी ठोस रूपमे किया जाता है । दार्शनिक दृष्टिकोणसे भी यह वही चीज है । प्रस्तुत दृष्टातमें, जीवनके आध्यात्मिक सिद्धातका प्रतिपादन यों किया जा सकता है : सापेक्षताओंमे 'निरपेक्ष' या अनेकतामें 'एकता' । लेकिन ''मान- सिक परिणाम'' की व्याख्याके लिये हमें दर्शन-शास्त्रकी शरण लेनी होगी ओर मेरा ख्याल है कि तुम उसके लिये काफी कच्चे हो । और वास्तवमें उसका अर्थ समझनेके लिये, व्यक्तिको ऐसा लगता है कि दर्शन-शास्त्र उस स्पर्श-रेखाकी तरह सदा सत्यके छोरपर ही रहता है जो पास आती है, ओर पास आती है पर कमी छूती नहीं, कुछ है जो बच निकलता है । ओर सत्यमें यह कुछ ही सब कुछ है ।

 

    इन चीजोंके'। समझनेके लिये... केवल अनुभूति -- इस सत्यका जीना आवश्यक है । साधाराग इंद्रियोंके तरीकेसे इसे अनुभव करना नही, बल्कि अपने भीतर सत्यका अनुभव करना, एक ही समयमें दो अवस्थाओंके ठोस अस्तित्वका अनुभव करना जो विरोधी होते हुए भी साथ रहती हैं । सभी शब्द केवल उलझनें पैदा करते है । बस, अनुभूति ही उस 'वस्तु' -क्। ( ठोस वास्तविकता प्रदान करती है : 'निरपेक्ष' और सापेक्षका, 'एक' और 'अनेक' का युगपत अस्तित्व, ऐसी दो अवस्थाएं नही जों एक-के-बाद-एक आती हों और एक-दूसरीसे उत्पन्न होती हों, बल्कि एक ऐसी अवस्था है जो दो विरोधी तरीकोसे... उस स्थितिके अनुसार देखी जाती है, जो तुम 'सद्वस्तु' के विषयमें अपनाते हो ।

 

   कोरे शब्द अनुभूतिको झुठला देते हैं । शब्दोंमें बोलनेके लिये व्यक्तिको एक पग पीछे नही, बल्कि एक पग नीचे जाना पड़ता है ओर सारभूत सत्य छूट जाता है । सिर्फ पथके रूपमें उनका उपयोग करना चाहिये जो उस 'वस्तु' तक पहुंचनेके लिये प्रायः सुलभ हे जिसे सूत्रबद्ध नही. किया जा सकता । ओर इस दृष्टिकोणसे कोई एक सूत्रबद्धता दूसरीसे अच्छी नहीं, सर्वोत्तम वह है जो सबको स्मरण रखनेमें सहायता करती है, अर्थात्, विचारमें कृपाका हस्तक्षेप किस तरहसे घनीभूत हुआ ।

 

    शायद कोई भी दो रास्ते बिलकुल एक जैसे नहीं होते, शायद हर एक-

 

३७४


को अपना रास्ता स्वयं ढूढना चाहिये । पर यहा गलती नहीं करनी चाहिये, यह तर्क-बुद्धिद्वारा ''ढूढना'' नही है, यह अभीप्साद्वारा ''ढूढना'' है : यह अध्ययन और विश्लेषणद्वारा नई।-, बल्कि अभीप्साकी तीव्रता और अंदरसे खुलनेकी सच्चाईद्वारा ढूढना है ।

 

    जब कोई सच्चाई और आध्यात्मिक 'सत्य'की ओर अनन्य भावसे मुंडा हुआ हों, इसे भले ही कोई नाम दे लो, जब बाकी सब कुछ गौण हां जाता है, जब केवल वही अत्यावश्यक और अपरिहार्य हो तब, उत्तर पाने- के ? उत्कट, निरपेक्ष, पूर्ण एकाग्रताका एक पल मात्र काफी होता है ।

 

    ऐसी अवस्थामें अनुभूति पहले आती है, सही रूपमें निरूपित सूत्रबद्धता तो बादमें, फलस्वरूप और स्मृतिस्वरूप की जाती है । इस तरीकेमें गलती- की गुंजाइश नहीं रहती । सूत्रबद्धता कम या अधिक यथातथ हो सकती है, उसका कोई महत्व नही जबतक कि तुम उसे रूढू सिद्धांत ही न बना लो । यह तुम्हारे लिये अच्छा है, बस इतनेकी ही जरूरत है । यदि तुम इसे दूसरोंपर थोपना चाहे।, चाहे बह कुछ मी हों और अपने-आपमे पूर्ण ही क्यों न हों, उसे बह अनुचित चीज हों जाती है ।

 

   इसीलिये धर्म सदा भूल करते आये है -- सदा -- क्योंकि वे अनुभूति- की अभिव्यजनाको मानक रूप दे देना चाहते है और उसे अकाट्य सत्यके रूपमे सबपर लादना चाहते है । जिसे अनुभूति हुई उसके लिये बह सच्ची, अपने-आपमें पूर्ण और विश्वासोत्पादक थी । उसके लिये अपने बनाये हुए सूत्र भीं अत्युत्तम थे । लेकिन उन्हें दूसरोंपर लादनेकी इच्छा रखना एक मालिक भूले है जिसके परिणाम बिलकुल अनर्थकारी होते है, जो सदा, सदा सत्यसे दूर, बहुत दूर ले जाती है ।

 

   अतः सब धर्म, चाहे वे कितने ही सुन्दर क्यों न हों, मनुष्यको सदा बुरी-से-बुरी अतियोंकी ओर ले गयें । धर्मके नामपर किये गये सारे अप- राध, सारे आतंकरे नृशंस कार्य मानव इतिहासके सबसे ज्यादा काले धब्बोंमेसे है और यह है केवल इसी छोटीसी मौलिक भूलके कारण : जो एक व्यक्तिके लिये ठीक हो उसे समष्टि या समूहके लिये ठीक माननेका इच्छा रखना ।

 

 ( मौन)

 

 रास्ता दिखा देना चाहिये और द्वार खोल देना चाहिये, शर हर एकक। राहपर चलना होगा, द्वारोंसे गुजरना होगा और अपनी व्यक्तिगत सिद्धिके लिये खुद ही रास्ता बनाना होगा ।

 

एकमात्र सहायता जो कोई लें सकता है और लेनी चाहिये वह है 'कृपा'- की सहायता जो हर एकमें उसकी सच्ची आवश्यकताके अनुसार, अपने- आपको व्यक्त करती है ।

 

३७५